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आदिवासी-प्रकृति के पुजारी

कौन हैं आदिवासी? "आदिवासी" एक शब्द है जिसका उपयोग भारत में स्वदेशी,मूलनिवासी या आदिवासी लोगों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग जातीय समूहों और समुदायों की एक विस्तृत श्रृंखला का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो ऐतिहासिक रूप से देश के जंगलों और ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, और उनकी अपनी अलग रीति-रिवाज,संस्कृति,नेंग-जोग,पूजा पध्दति,भाषा और परंपराएं हैं। आदिवासी समुदाय अक्सर हाशिए पर होते हैं और महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करते हैं। आदिवासियों के बारे में बहुत कुछ कहा, सुना गया, बहुत कुछ लिखा, पढ़ा गया और बहुत कुछ इन सबके बीच छुट भी गया है। चिंतको ने अपने अनुसार अध्ययन कर अपना मत व्यक्त किया है, किंतु आदिवासी समुदाय को समझना इतना भी आसान नहीं है। जिस तरह से सिंधु घाटी सभ्यता कि लिपि को आज पुरी तरह से पढ़ा, समझा नहीं जा सका है उसी प्रकार आदिवासी समुदाय को भी आज तक पुरी तरह से समझा नहीं जा सका है।

जीवन के अनुभव

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  जीवन में जब निराशा,अवसाद और दु:ख आती है तो हम जैसे आम इंसान घबराहट में कुछ सकारात्मक सोच नहीं सकते,थोड़ी बहुत आशा और उम्मीद 'लोग क्या कहेंगे?' वाली सोच आदमी को आगे बढ़ने नहीं देती है। उस क्षण ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पुरी दुनिया हमारे खिलाफ हो और हम अकेले।  यह भी सच है कि व्यक्ति समस्याओं से जुझकर ही सामर्थ्यवान बनता है। सोना तभी निखरता है जब वह आग से तपकर निकलता है। कठिन समय में व्यक्ति को चाहिए कि सबसे पहले उसे एकांत में चले जाना चाहिए और कुछ समय के लिए मौन व्रत धारण कर लेना चाहिए। उसके बाद अपने सबसे अच्छे घनिष्ठ मित्र को अपनी बातें बतानी चाहिए। घनिष्ठ मित्र लाख दु:खों कि दवा समान है ,बशर्ते मित्र सच्चा और सुख दुःख को समझने वाला हो। अगला कदम यह होना चाहिए कि खुद शांत रखने के लिए योग,प्राणायाम करना चाहिए। किसी भी समस्या को शांतचित्त होकर समाधान ढूंढने का प्रयास करना बुद्धिमानी है। एकांत वरदान के समान है, अगर उसका सही उपयोग किया जाए, एकांत में व्यक्ति अंतर्मन से जुड़ कर आत्मचिंतन कर शांति प्राप्त करता है। दुःख,निराशा,अवसाद सभी के जीवन में आती है लेकिन अधिकतर लोग इस स्थ